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मेरे ब्लॉग की दुनिया के दोस्तों,
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एक लम्बे अन्तराल के बाद मुखातिब हूँ और अभी भी शायद कुछ ठीक से कह पाने की स्थिति में नहीं हूँ बस क्षमा प्रार्थी हूँ अपनी बेबसी का……….
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हतप्रभ हूँ
अवाक हूँ मैं
क्योकि
लेखनी मेरी, आगे लिखने से अब इनकार करती हैं!
“कि क्यों लिखते हो तुम………..?”
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आश्चर्यचकित हूँ,
मूक हूँ
और जड़ भी हो गया हूँ मैं.
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ऐसा नहीं हैं की भावनाओं के सैलाब ने उमड़ना बंद कर दिया है
ऐसा भी नहीं हैं कि मगजमारी कुछ कम हो गई है
और ऐसा भी कुछ नहीं है कि मेरे साथ कुछ ऐसा वैसा घट गया है
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पर मेरी लेखनी को ऐतराज़ है!
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मैं रोज़ समाचारों को पढ़ता हूँ, सुनता हूँ
कुछ न कुछ सोचता भी हूँ
और उद्द्वेलित भी हो जाता हूँ
पर ये बुखार रहता है
अख़बारों और चाय की चुस्कियों के खत्म होने तक
और शायद कुछ पंक्तियों के लिखने तक
या फिर पारिश्रमिक या पुरस्कार मिलने तक.
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मेरी लेखनी को लोगों ने पसंद किया है
सराहा भी है
और तो और भरपूर पारिश्रमिक भी मिले है
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बावजूद इसके
ऐतराज़ उसका अभी भी बरक़रार है?
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समूचा देश जल रहा है
क्यों कि अभी हर थोड़ी देर में
कोई न कोई कुछ लकड़िया लगा कर
चला जाता है वापस!
कल आने का वादा कर के….
अच्छा होता गर जाता
कल आने का इरादा कर के.
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आग का उसूल है कि वो ठंडी पड़ जाती है
गर उसमे और ज्वलनशील सामग्री न डाली जाय तो…….
और आग बुझाने वाले निरंतर
इस ताक में रहते है
कि
कब लोगो के हौसले पस्त पड़े
और वो अपनी ‘आग’ फिर कही ठंडी कर सके
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कितने दिनों से लेखनी आग उगल रही थी,
कितने ही विद्रोहों को जनम दे रही थी,
कितनो को शिक्षित कर रही थी,
कितनो की आजीविका चला रही थी,
कितनो की संवाद बन रही थी,
कितनो की आवाज़ बन रही थी,
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पर क्यों
अब अचानक लेखनी विद्रोह पर उतर आयी है
अपने कर्तव्य से विमुख होना चाहती है
फिर से लोगो को जाहिल बनाना चाहती है
लोगो के रोज़गार छीनना चाहती है
फिर लोगो को गूंगा बनाना चाहती है
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शायद अब लेखनी को भी समझ आने लगा है
कि लोगो ने उसका इस्तेमाल अपने फायदे के लिए ही किया था
उसको सिर्फ माध्यम बनाया गया था
तरह तरह से उसे सजाया गया था,
फिर,
अपनी रोज़ी के लिए उसे नचाया गया था,
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लोग उसके साथ रह कर भी
जाहिल के जाहिल ही रहे
खुदगर्ज़ और मतलबपरस्त ही रहे
बर्बर और हिंसक ही रहे
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तो फिर लोगो को उसकी ज़रुरत ही क्या है?
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उसे अब लगने लगा है कि
बहला फुसला के
उसका भी किया गया है
सामूहिक बलात्कार.
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