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मेरे उदास पलों में अक्सर
एक औरत
मेरे सामने आकर,
बेसहारा और मजलूम सी खड़ी हो जाती
डबडबाती और कातर आँखों से
कपकपाते और आतुर होंठो से
कुछ बोलना चाहती!
मगर मैं-
अपने अंधेरों में व्यस्त
उसकी मौजूदगी से बेपरवाह रहती
लेकिन उसकी ठंडी मौजूदगी में मुझे
एक गर्म एहसास सालता रहता
अचानक, एक दिन
मैं यूँही अपने उदास लम्हों के साथ
वक्त बिताने की नाकाम कोशिश में
‘मसरूफ’
कि ‘वो’ मेरे सामने आ खड़ी हुई
मैं बरबस झुंझला पड़ी
और अपनी खामोश आवाज़ से
उस पर बरस पड़ी
‘क्या चाहती हो?’
मेरे पास अंधेरों के सिवा कुछ नहीं है
मैं तुम्हे कुछ नहीं दे सकती
वो दीन दुखियारी सी
न गिड़गिड़ाई
न झुंझलाई
बस अपनी उंगली से
एक तरफ इशारा कर दिया
जिधर से
एक रौशनी की लकीर
आती दीख पड़ रही थी
और मैं सम्मोहित सी
बिना प्रतिरोध के
उधर ही चल पड़ी
कुछ ही देर में
मं उसके बताएं रास्ते पर
रौशनी से नहा गई
अँधेरे का तो नामों निशान मिट गया था
मुझे वो राह मिल गई
जिसकी मुझे तलाश थी
मगर वह औरत
राह दिखला कर कहीं खो गई थी
अब वो मुझको दिखती ही नही थी
मैं उसे कुछ देना चाहती थी
उसके एहसानों का कर्ज़ चुकाना चाहती थी
और ‘वो’ थी कि
न आती थी
न दिखती थी
एक दिन आईने के सामने खड़ी ‘मैं’
खोई खोई सी लग रही थी
सब कुछ पाकर भी खोने के एहसास से
बेबस और मायूस लग रही थी
कि अचानक
मेरे चेहरे पर
उसी औरत का अक्स उभरने लगा
मैं ख़ुशी से चीखना चाहती थी
मगर डर से मेरी घिग्गी बंध गई
अपने चेहरे पर उसका चेहरा देख कर सहम गई
दोनों हाथों से
अपना चेहरा ढांप लिया
जरा सी सांस थमने पर
हाथों की झिरी से
आईने को निहारा
तो खुद को ही
अपने हाथों से चेहरा छिपाए हुए पाया
और वो औरत मेरे बगल में खड़ी
मुस्कुरा रही थी
‘तथास्तु’ की मुद्रा में
शनैः शनैः पीछे हटते हुए
धीरे धीरे लोप हो गई
और अब उसका मुस्कुराता चेहरा
सदैव मेरी आँखों के सामने रहता है
और मुझे यकीन हो चला है
कि ‘वो’ और कोई नहीं
मेरी माँ है
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