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क्या हम ‘आज़ाद’ है?

Apni Aawaz
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आज़ादी के 66 वर्ष ‘गुज़र’ गए.
क्या हम आज़ाद है?
ये प्रश्न सैद्धांतिक रूप से भले ही बेमानी हो पर ये व्यवहारिक ‘यक्ष’ प्रश्न आज भी हमारे सामने अनुत्तरित खड़ा है.
अगर हम वास्तव में आज़ाद होते तो हमारी आज़ादी का हर साल ‘गुज़रा’ न होता अपितु हर साल ‘मुकम्मल’ होता. आज़ादी के मतवालों ने आज़ादी के बाद की स्थिति के बारे में क्या सोचा होगा, ये बड़ा दुरूह और विवादित प्रश्न है.
आज़ादी के मतवालों में से ही कुछ ने ‘खंडित’ भारत देश की बागडोर अपने हाथ में ली थी पर शायद ये आज़ादी नहीं थी बल्कि अंग्रेजो से लिया गया ‘चार्ज’ यानि ‘पदभार’ था. अंग्रेज़ी हुकूमत हटा कर अंग्रेजो के बनाये ही कायदे-कानून को देशी जामा पहना कर हमारे अपने ‘हुकूमत’ कर रहे है जैसे अँगरेज़ किया करते थे. आज भी देश के विभिन्न हिस्सों से आज़ादी के नाम पर, धर्म के नाम पर, हुकूमत के खिलाफ और न जाने कितने आन्दोलन खड़े होते है. पर उन्हें अंग्रेजो की भाति दबाने की कोशिशे ब-दस्तूर जारी है.
आज़ादी के मतवाले जो ‘गाँधी’ अथवा ‘कांग्रेसी’ विचारधारा के नहीं थे अलग-थलग पड़ गए. उनकी विचारधारा वाले अनुयायी कहते घूमते है कि ‘वो’ (पटेल, सुभाष, चन्द्रशेखर, भगत सिंह इत्यादि) होते तो भारत का नक्शा ‘कुछ’ और ही होता. यहाँ ‘कुछ’ बड़ा विस्तृत और विवादित शब्द है. वो तथाकथित अनुयायी भी आज शिथिल और निष्क्रिय है (केवल कभी कभी विरोध और केवल विरोध के लिए ही जागते है और भी सुसुप्तावस्था में चले जाते है).
अभी कुछ दिन पहले कैप्टेन श्रीमती लक्ष्मी सहगल का ९६ वर्ष की उम्र में देहांत हो गया था, श्रीमती सहगल नेता सुभाष चन्द्र बोस जी की आज़ाद हिंद फौज में कैप्टेन थी. काफी अरसे से उनकी किसी ने सुध नहीं ली और न उनके सपनो के बारे में सोचा मगर देहांत के समय सभी निष्क्रिय सक्रिय हो गये और नारे

    ‘मम्मी तेरे सपनो को, मंजिल तक पहुचाएंगे’

लगाते हुए उनके जनाजे को श्मशान तक ले गये. कितने तो नारे लगाने वाले तो ये भी नहीं जानते होंगे कि उनके सपने क्या थे? और मंजिल क्या थी?
वो लोग फिर कही गुम हो गये..
आज महत्वपूर्ण प्रश्न ये नहीं है कि ‘कौन’ होता तो ‘क्या’ होता? अपितु ‘जो’ है ‘वो’ ऐसा क्यू है?
आज़ादी के वर्ष दर वर्ष बीत रहे है पर आज भी आज़ादी के उस पल को याद कर मन में इक टीस उठती है कि क्या इन्ही दिनों के लिए आज़ादी हासिल की गयी थी?

    आज भी हमारी आज़ादी को
    -‘आरक्षण’ निरंतर डस रहा है,
    -‘अनुदान’ दीमक की तरह चाट रहा है,
    -अपरिभाषित ‘धर्म-निरपेक्षता’ नींव हिला रही रही है,
    -लचीला संविधान ‘लुंज-पुंज’ कर रहा है,
    -दूसरी पायदान पर भारतीय संस्कृति निरीह सी ताक रही है (प्रथम पायदान पर अभी भी ब्रितानी संस्कृति विराजमान है)
    -सुरक्षित रखने का वादा करने वाले खुद को असुरक्षित महसूस कर विदेशो में पैसा जमा कर रहे है (अँगरेज़ भी यही करते पर वो अपने देश के प्रति वफादार थे),
    -लायक बेटा घर (वतन) छोड़ कर गैरों की चाकरी कर मुहं चिढ़ा रहा है,
    -और देश में उपलब्ध संसाधनों को विदेशी गैर-ज़रूरी चीज़ें ठेंगा दिखा रही है,

आज़ाद भारत शायद आज रो-रो कर यही कह रहा हो:-

    …………………..
    ‘काश मै तेरी क़ैद से यूँ आज़ाद न होता, ऐ सितमगर
    तेरे ज़ुल्म जितने बढ़ते गए, मैं फौलाद होता गया
    ये लोहा अब लिखता है इबारत, दूसरो के मुक़द्दर की
    एक सितमगर मेरे अन्दर कामयाब होता गया’.
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