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यद्यपि कल की तुलना में स्त्रियों की स्थिति आज काफी मज़बूत हुई है मगर सिर्फ उनकी जिन्होंने अपनी शक्ति, क़ाबलियत और व्यक्तित्व को पहचान कर समाज में अपनी सशक्त उपस्थित दर्ज़ कराई है. पर आम औरत; चाहे वो बालिका हो, युवती हो, महिला हो, औरत हो या वृद्धा हो अभी भी कुचली , मसली, और सताई जा रही है. और उसके शोषण का अंत जहाँ होता है वहां से दूसरे के शोषण की तैयारी आरम्भ हो जाती है, इस पर बहुत पहले कुछ लिखा था पर आज भी मुझे उतना ही प्रासंगिक लगता है;
अत्याचार!
अनाचार!
फिर भी क्यूं चुप हो?
निर्धन नारी,
यही चुप-
तुम्हे दबा रही है,
निकृष्ट बना रही है,
इज्ज़त के लिए
बेइज्ज़त करा रही है
कुछ तो बोलो,
मुंह तो खोलो,
या फिर –
कह डालो…….
भूखे तन के हैवानो से,
इंसानियत के दुश्मन
बर्बर इंसानों से,
भर गया है मन तुम्हारा,
अब जिन्दा लाशें सहलाने को,
पर-
पल रहा है “भविष्य” कोख में
तुम्हारी पीढ़ी बहलाने को.
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इन सिलसिलों के थमने का इंतज़ार बरसो से है हमें
हर रोज़ इस उम्मीद में एक सुबह और गुज़र जाती है.
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