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टेलीविजन पर एडल्ट फिल्मों का प्रदर्शन – समय की मांग या संस्कृति पर वार ?– Jagran Junction Forum

Apni Aawaz
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किसी समाज की बागडोर जिन लोगो के हाथ होती है उनकी सोच ही समाज का प्रतिनिधित्व करती है. टेलीविजन पर एडल्ट फिल्मों का प्रदर्शन भी एक ऐसा निर्णय है जो ऐसे लोगो के द्वारा लिया गया है जिनपर समाज को दिशा देने की जिम्मेदारी है. अब वो किस दिशा में काम कर रहे है ये विवाद का विषय हो सकता है लेकिन सिर्फ उन लोगो के बीच जिन्होंने उन्हें चुना है और जिन्होंने उन्हें नहीं चुना है.ये तय है कि जिन लोगो के वोट और सपोर्ट से इस प्रकार की समितिया काम काज करती है उनकी सोच के हिसाब से ये सही निर्णय है क्यों कि समाज के समझदार और पढ़े-लिखे (जिन्हें इस प्रकार के निर्णयों से तकलीफ है) लोगो ने तो अपने बच्चो को डाक्टर, इन्जीनियर, चार्टर्ड अकाउंटटेंट, आई.ए.एस.,पी.सी.एस., एम.बी.ए., पी.ओ., लेक्चरर आदि ही बनाने के लिए ही स्थान सुरक्षित कर रखा है सरकार बनाने या लोगो की नुमाइंदगी करने के लिए ये क्षेत्र इन लोगो ने स्वयं उन लोफर गुंडों के लिए ही रिक्त छोड़ रखा है. तो वे ही समाज को दिशा देने का काम भी करेंगे. इस क्षेत्र में या तो स्थापित परिवार के लोग है जो अब गुंडे, मवाली, नकारा जैसे लोगो की बैसाखी से अपने को स्वस्थ प्रतिद्वंदिता से दूर रखते है या दिस्त्रक्टिव इंटेलिजेंट जो पढाई लिखाई में कमज़ोर दिखते है पर तरह तरह के एबो से सुसज्जित होते है (जिनसे हमारे तथाकथित समझदार लोग परहेज़ करते है).
ऐसे ऐबी लोगो का मानना है कि जो समाज में परदे में किया जाता है उसे सार्वजनिक रूप से करना चाहिए और हमें बच्चो से कुछ भी नहीं छुपाना चाहिए चाहे वो भद्दी भद्दी गालियाँ हो या अश्लील वार्तालाप. शायद कल हम अपने बच्चो या छोटो के सामने प्रजनन सम्बन्धी क्रिया कलापों को करने के लिए बाध्य होगे. सेक्स एजुकेशन के फलस्वरूप आज विद्यार्थियों ने पाकेट या पर्स में कंडोम के पैकेट रखने शुरू कर दिए है. ऐसा नहीं है कि सेक्स के बारे पहले बच्चे नहीं जानते थे, जानते थे मगर वो सीढ़ी दर सीढ़ी जान पाते थे मगर आज वो स्कूल से ही शारीरिक सम्बन्ध सुरक्षित तरीको से बनाना सीख जाते है.
आजकल औरतो को बराबरी का दर्ज़ा देने की जो मुहिम चल रही है उसमे ७०% तो औरतो के शारीरिक शोषण के तरीके है इसमें सुनियोजित षड़यंत्र के तहत औरत स्वत अपना शरीर आधुनिकता के नाम पर समर्पित कर देती है. इनमे सौन्दर्य प्रतियोगिता, फैशन शो, तथाकथित यथार्थपरक फिल्मे और देर रात की नौकरियां प्रमुख है. खुलेपन के नाम पे दिन-ब-दिन उतरते कपडे बोल्ड होने का दावा करते तो नजर आ रहे है जबकि मानसिकता अभी भी बुर्के में घूमती नज़र आ रही है. आज भले ही लोग कितना भी दावा कर ले मगर उन्हें अपनी बोल्ड गर्ल फ्रेंड के साथ समय बिताना तो अच्छा लगता है पर जीवन साथी चुनने के वक़्त उन्हें वर्जिन की चाह ही रहे तो ताज्जुब नहीं. यहाँ तक कि बोल्ड माँ भी अपने बच्चे के लिए संस्कारी, सुशील और कुँवारी बहू ही ढूँढती नजर आती है.
आज एडल्ट फिल्मो का प्रचलन बढ़ने का कारण औरत का स्वयम ऐसे दृश्यों को कला के नाम करने के लिए तैयार हो जाना ही है. पाश्चात्य सभ्यता को केवल नग्न हो कर ही नहीं अपनाया जा सकता अपितु खुली मानसिकता को भी अपनाना होगा. बलात्कार, छल, और धोके से बनी माँओं को अपनाना होगा ताकि वे उपेक्षित होकर देहव्यापार की ओर रुख न करले. वर्जिनिटी/कौमार्यता की धारणा को बदलना होगा. औरतो को वही हक और इज्ज़त मिलनी चाहिए जो एक पुरुष को दस जगह मुंह मारने के बाद भी आसानी से मिल जाती है.
सनी लिओन जैसे पोर्न स्टार को जिस प्रकार से हाथो हाथ लिया जा रहा है तो वो दिन दूर नहीं कि अपने देश में भी ब्लू फिल्मो का खुले आम निर्माण शुरू हो जायेगा.
टेलीविजन पर एडल्ट फिल्मों का प्रदर्शन इसी क्रम में एक और कदम है जो समय की मांग के नाम पर निसंदेह संस्कृति पर वार है. आज जब बड़े घरो के हर कमरे में टीवी है वहीँ एक कमरे में रहने वाला बड़ा परिवार भी है जिनके बीच एक ही टीवी है जिसे चादर की ओट से बड़े आराम से देखा जा सकता है. और बड़े घर में तो तरह तरह के गैजेट्स में अलार्म लगा कर या रिकार्ड करके बाद में भी देखा जा सकता है.
अब प्रश्न कि ऐसी फिल्मो का प्रसारण टीवी पर क्यूं? इसका तो उत्तर हम सब जानते है मगर फिर भी कुछ संजीदा लोग ऐसे मुद्दे इस विश्वास के साथ उठाने का प्रयास करते है कि लोगो में चेतना जगे और समाज की बागडोर योग्य हाथों में जाये.
आज लोग प्रेमचंद, शरत चंद, जयशंकर प्रसाद, शेक्सपियर आदि के साहित्य को नज़रंदाज़ कर वास्तविकता, सच्चाई और यथार्थ के नाम पर नग्नता, फूहड़ता, क्रूरता और अश्लीलता को परोस रहे है. ‘मुझे जीने दो’ और ‘जिस देश में गंगा बहती है ‘ जैसी डाकू प्रधान फिल्मे भुला कर माँ-बहन की गालियों से सजी निरुद्देश्य ‘बैंडिट क्वीन’ को सराहा जा रहा है. ‘सत्यकाम’ और ‘रोटी कपडा और मकान’ के प्रतीकात्मक बलात्कार के दृश्य को छोड़ कर औरत के नग्न शरीर को तरह तरह से नुमाया कर ‘इन्साफ का तराजू’ में फिल्माए गये सीधे सीधे बलात्कार को दिखाना पसंद करते है जो औरत के प्रति केवल ‘भोग की वस्तु’ की धारणा को बलवती कर रहे है. आदिकाल (पाषाण) और आदिवासियों की और मुंह करके बिना सोचे विचारे पाश्चात्य संस्कृति को अपनाना और अपनी संस्कृति से विमुख होना केवल और केवल संस्कारी लोगो की एक्टिव राजनीति के प्रति उदासीनता है वरना आज इतने अश्लील शब्दों से सजे गीत समाज में जहर नहीं घोल रहे होते क्योकि एक बार सजग सेंसर ने गीत ‘ये रात ये फिजायें आये या न आये आओ शमा बुझा कर हम आज दिल मिलाये’ को पास करने से मना कर दिया था जब तक कि इसमें ‘आज दिल मिलाये की जगह आज दिल जलाये’ नही किया गया.
टेलीविजन पर एडल्ट फिल्मों का प्रदर्शन किसी चीज़ की शुरुआत नहीं है अपितु अधपकी पाश्चात्य सभ्यता की ओर बढ़ता एक और आत्मघाती कदम है.

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