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एक बात तो साफ़ है कि अपनी बात के सकारात्मक पहलू दर्शाने के यदि सौ बहाने होते है तो दूसरों के पास उसी बात को नकारात्मक सिद्ध करने के भी सौ बहाने होते है.
प्रेम के बारे में लोगो की यह बात सोलह आने सच है कि वास्तविक प्रेम के दर्शन दुर्लभ है. और यह ऐसा इसलिए है क्यों कि इनकी खोज किन्ही ख़ास रिश्तो को ध्यान में रख कर की जा रही है जबकि प्रेम किसी रिश्तो को मोहताज़ नहीं हैं. इसकी ख़ास बात ये है कि यह एकतरफा ही होता है और जब इसमें ‘अपेक्षा’ का समावेश हो जाता है तो ये प्रेम न होकर सिर्फ देने के बदले में लेने का मामला हो जाता है. प्रेम केवल किसी को प्रेम करने को कहते है न कि किसी के प्रेम प्राप्त करने को. किसी से प्रेम को पाने के बारे में सोचने को प्रेम नहीं बल्कि ‘बदले की भावना’ कहते है. जैसे ‘तुम नहीं और सही और नहीं और सही……..या तू औरो की क्यों हो गई………… या क्या हुआ तेरा वादा…………आदि आदि ‘
‘अपेक्षा’ प्रेम भावना के विपरीत है और ऐसा प्रेम- प्रेम नहीं संतुलन और सामजस्य होता है जो एक मजबूरी भी हो सकता है जिसमे अक्सर लोग कहते है कि ताली एक हाथ से नहीं बजती जबकि प्रेम किसी के प्रति तत्परता, समर्पण, विश्वास, त्याग और नि:स्वार्थ भावना का प्रतीक है. जब हम किसी के प्रेम को नापने लगते है हमे ही सबसे पहले एहसास हो जाता है कि हम उसे कितना प्यार कर रहे है.
सच्चा प्रेम तो यह है कि
‘कोई जब तुम्हारा ह्रदय तोड़ दे, तड़पता हुआ जब तुम्हे छोड़ दे,
तब तुम मेरे पास आना प्रिये मेरा दर खुला है खुला ही रहेगा तुम्हारे लिए’
ये प्रेम-भाव माँ-बेटे का भी हो सकता है पति-पत्नी, प्रेमी-प्रेमिका, बाप-बेटे, भाई-भाई या दोस्त-दोस्त या किसी भी दो या अधिक के बीच हो सकता है और सच्चा प्रेम केवल और केवल इसी भाव का ही द्योतक है और ईश्वर भी हमसे ऐसा ही प्यार करता है और हमें भी ईश्वर और समस्त जीवो से ऐसा ही प्रेम करना चाहिए.
कबीर दास जी सच कहते है कि ‘मोको कहाँ ढूंढे रे बन्दे मै तो तेरे पास’
पुनः एक बार फिर प्यार प्रेम इश्क मोहब्बत की लम्बी उम्र के लिए …………………
…………………………………………………और सिर्फ और सिर्फ प्रेम की खातिर
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