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आज का बचपन

Apni Aawaz
Apni Aawaz
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वासना की तपन लगी हर वय को,
रिश्तों के ढांचे चरमराये.
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कूकने से अब कोयल भी डरती है,
आम कहीं सच्ची न बौरा जाये.
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कलुषित हो रहे है अब जो सम्बन्ध,
मासूमों के दिल दहलायें.
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‘बचपन’ चिहुंका यौवन की देहरी पर,
क्या पहने? क्या ओढ़े? कित डोले, क्यूं इठलायें?
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मेला ठेला हो या हो सावन बसंत,
उन्मुक्त सा वो कैसे हँसे? कैसे मुस्काए?

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